ज़िन्दगी को
स्वार्थ का ज़िन्दगी को
स्वार्थ का, नश्तर लगा
ढेर था इंर्टों का, उसको घर लगा
हादसा यह क्या हुआ, इस शहर
में
आते-जाते को हमेशा डर लगा
जब कहीं भी प्यार की मैयत उठी
मेला नफ़रत का वहाँ अक्सर लगा
उफ् हमारे दौर की यह सभ्यता
दिल में आता है उसे ठोकर लगा
दिन में चल कर थक गई है तू
'उषा'
रात हो आई है चल बिस्तर लगा
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