परिंदा याद का
परिंदा याद का, मेरी मुँडेरी
पर नहीं आया
कोई भटका हुआ राही पलट कर घर नहीं आया
सभी ने ओढ़ कर चादर उदासी की
यही सोचा
शज़र पर क्यों बहारों का नया मंज़र नहीं आया
उसे डर था कि छूने से कहीं
मुरझा न जाए वो
इसी डर से वो नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया
मुखौटा-दर-मुखौटा थी हँसी, बस
इसीलिए ही तो
छुपा था जो मुखौटे में, नज़र खंजर नहीं आया
चुभे है दिल में 'तेरे ऐ'
'उषा' कुछ दर्द के काँटें
है अचरज क्यों उभर कर आह का इक स्वर नहीं आया।
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