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अनुभूति में प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण की
रचनाएँ-

नयी कविताओं में-
अपने को मिटाना सीखो
एक दिन

ये मेरे कामकाजी शब्द

कविताओं में-
उभरूँगा फिर
एक धुन की तलाश
गुज़रे कल के बच्चे
घर लौट रहे बच्चे
चलती है हवा
जापान में पतझर
झरती पत्तियों ने
दिन दिन और दिन

ध्वन्यालेख तन्मयता के
निराला को याद करते हुए
मुक्ति
मौसम
लक्ष्य संधान
वसंत से वसंत
सार्थक है भटकाव

सुनो सुनो

  ये मेरे कामकाजी शब्द

तकिए के नीचे रखी किताब
मेरे सोते ही जाग जाती है
पन्नों की चारपाई से उठ,
शब्द निकल पड़ते हैं
कामकाज की तलाश में।
वे नाश्ता नहीं करते
क्योंकि उनके पास न रसोईघर है,
न अलमारी, न फ्रीज
और यह सब हो भी तो
क्या फ़र्क पड़ता है
क्योंकि उनकी सोच है कि
बासी चीज़ों का इस्तेमाल न किया जाए
चाहे वे चीज़ें खाने की हों
या कि फिर
अनुभव ही क्यों न हो।

ये कामकाजी शब्द
मेहनत में विश्वास करते हैं
फिर चाहे मेहनत
खेत की हो या खलिहान की
या कि फिर दफ्तर में बैठ
पुरानी फाइलों में दर्ज टिप्पणियों से
इतिहास निर्माण की।

ये अपना काम बखूबी जानते हैं
बार-बार चाय पीते हुए बतियाने में
या अपनी तनखा बढ़वाने के लिए
हड़ताल कराने की जुगत भिड़ाने में
नहीं है इनका विश्वास
चिंता है तो इन्हें बस एक
कि उन्हें कोई अपने काम ला सके
या दूसरे शब्दों में कहें तो यह
कि वे किसी के काम आ सकें।

काम कैसा भी हो
इससे नहीं है उन्हें कोई ऐतराज़
बेहद मामूली है उनकी दरकार
कि उनका उपयोग
सही संदर्भों में हो
यानि कि उन्हें जो काम
और नाम दिया जाए
दरअसल वही काम और नाम
बने उनकी पहचान
क्योंकि यह उनकी अस्मिता का सवाल है।

और यही नहीं हो पाता है
कैसी अजब विडंबना है
मेरे कामकाजी शब्दों की,
कि सभी उन्हें
उनके संदर्भों से नहीं
अपने निहितार्थों से
करते हैं परिभाषित
ठूँस देते हैं उनमें
अपने राग-द्वेष
ममत्व-परत्व
और समय-समय पर
घोषित करते रहते हैं
मर गए हैं इन शब्दों के देवता

कैसी त्रासदी है
जीते जी मार दिए जाते हैं
ये मेरे कामकाजी शब्द!
क्योंकि वे चिल्ला नहीं सकते
क्योंकि वे किसी संगठन के सदस्य नहीं हैं
क्योंकि वे किसी संघ के सेवक नहीं हैं
क्योंकि इनका रसूख किसी नौकरशाह
या कि पुलिस अफसर से नहीं है।

गरीब की जोरू की तरह
हर कोई आता जाता
कौंच जाता है इन्हें।

महानगर में
सिर पर पोटली रखे
एक झुग्गी से दूसरी झुग्गी तक
यात्रा करने के लिए विवश हैं
मेरे ये कामकाजी शब्द!

ये करना चाहते हैं सृजन
कुछ ऐसा कि लगे
उसमें है इनका भी कुछ योगदान
नहीं चाहते ये कोई पदक
श्रीफल, शॉल का अनुदान
चाहते हैं तो बस इतना कि
इन्हें समझा जाए
इनकी अपनी नैसर्गिकता के साथ
किसी के प्रभा मंडल से
आक्रांत हुए बिना
इनके अंतस में समाए
उत्स तक पहुँचा जाए
आप्लावित हो सब
रूप-रस-गंध की बहती नदी में
डूबें और पारहो जाएँ

पर यह हो नहीं पाता है
दुर्भाग्य से जुड़ा
इनका कुछ ऐसा नाता है
कि मेरी अव्यावहारिकता का दंड
इन अभागों को मिलता है।

यदि मैंने मिलाई होती उनकी हाँ में हाँ,
पिया होता उनके साथ निंदा-रस
ला दिया होता उन्हें
कोई महकता गजरा वेला का
तो मेरे ये कामकाजी शब्द
हो जाते ब्रह्म
और उनका अर्थ ब्रह्मानंद सहोदर।

पर यह हो न सका
होता भी कैसे
मेरे ये कामकाजी शब्द
न जाने कितने युगों से शापित हैं
नए-नए रूपों में होते रहे हैं अवतरित
कभी नचिकेता
कभी एकलव्य
कभी संजय तो कभी अश्वत्थामा
और हर बार
कोई न कोई छलावा
पीछा करते है
कभी जमदग्नि
कभी द्रोणाचार्य
कभी धृतराष्ट्र
तो कभी युधिष्ठिर का अर्द्धसत्य।

सच कहने की सज़ा
भोगते हैं हर बार
ये मेरे कामकाजी शब्द!

पसीने से लथपथ
हाँफते रिक्शेवाले की तरह
ढोते हैं उस आडंबरी काया को
जो सभा में बैठे सभासदों
के रूझानों को पहचान
करती है व्याख्या निहितार्थ की

मेरे ये कामकाजी शब्द
अवाक रह जाते हैं!
चिल्ला-चिल्लाकर कहना चाहते हैं
नहीं, नहीं इतना सपाट
और इकहरा नहीं है उनका अनुभव
उन्होंने भी झेली है
यथार्थ की आँच
कुम्हार के आँवे में
मिट्टी के बर्तनों की तरह
पके हैं वे धीमे-धीमे।

वे नहीं हैं मिट्टी के लौंदे
कि आप पान चबाते
सिगरेट का धुआँ उड़ाते
स्कॉच का घूँट लेते
जडाऊ अँगूठियों से भरी अँगुलियों से
मनचाहा आकार दे दें इन्हें!

पर कहाँ चिल्ला पाते हैं
मेरे ये बेजुबान शब्द

अत्याचारों की भी एक परंपरा होती है
सिद्धातों और नफासतों से भरी
चाहे फिर कटे एकलव्य का अँगूठा
प्रमथ्यु के कंधे पर बैठ
गिद्ध नौंच-नौंच खाए उसका माँस
संजय सुनाए अंधों को
महाविनाश का आँखों देखा हाल
सुकरात, मीरा को पिलाया जाए ज़हर
या लिंकन, गांधी, मार्टिन लूथर किंग की
छाती में उतारी जाए गोली
कुछ फ़र्क नहीं पड़ता है

जो वक़्त से आगे की सोचते हैं
उनके साथ
ऐसा ही होता आया है।
यही तो परंपरा है।

इसलिए मेरे कामकाजी शब्द
बेजुबान हैं
आलोचकों ने काट दी है इनकी जुबान
कि इतिहास में
दर्ज न हो सके इनका वयान
कि वक़्त की अदालत में
गलत बयानी का
कर न सकें प्रतिकार
गिनवा दिए जाएँ वे सभी अपराध
जो उन्होंने नहीं किए
जोड़ दी जाएँ वे सब दफाएँ
जिनका फ़ैसला
सज़ा-ए-मौत में होता है।

हर बार
ऐसे ही सज़ा पाते रहे हैं
ये मेरे कामकाजी शब्द

जब भी विरोध में
लोकतंत्रात्मक तरीके से
उठाया है सिर मेरे शब्दों ने
कुचल दिए गए हैं

तिनहनमन चौक
किसी एक राष्ट्र की बपौती नहीं है
सभी के पास
अपने-अपने तिनहनमन चौक हैं
जंतर-मंतर हैं
टैंक हैं
औऱ खून रंगी सड़कों को,
धोने के लिए
फायर ब्रिगेड की
पानी भरी लाल गाड़ियाँ हैं।

कभी-कभी
अखबार के पन्नों पर
औऱ टी.वी. कैमरों की रोशनी में
चमकते हैं मेरे कामकाजी शब्द
कुछ क्षण होते हैं आश्वस्त
कि शायद
अब दुनिया जान जाएगी
उनका वह अर्थ
जो इकहरा नहीं
बहुआयामी है

पढ़ लिया जाएगा
उनमें समाया
सत चित वेदना का इतिहास
देख लेगी दुनिया
उनके पीछे नहीं है
कोई आंदोलन
या कि कोई 'ओछा' वाद

पहचान लेगी दुनिया
उस साज़िश को
जो किसी सत्ताधीश चाणक्य की
महत्त्वाकांक्षाओं से जुड़ी है

जो शब्दों को
संदर्भों से काट
मनचाहे अर्थों की
पहना देता है पोशाक

पर नहीं,
नहीं होता है यह सब
मेरे कामकाजी शब्द
फिर छले जाते हैं
अखबार की काली स्याही
उनकी वेदना को
बदल देती है चटखारेदार कहानी में
टी.वी. के कैमरे
खाने लगते हैं
टी.आर.पी. की पेस्ट्री।

संसद में उठता है मुद्दा
पर बहस कोई नहीं चाहता
वाकआउट ही रास्ता आसान
नेताओं के आते हैं बयान
और मेरे ये कामकाजी शब्द
कभी हो जाते हैं हिंदू
तो कभी मुसलमान
कभी राशन-कार्ड
तो कभी इलैक्शन-कार्ड
कभी दलित तो कभी ओ.बी.सी.
पर फिर भी
नहीं कर पाते हैं मतदान

हैरान-परेशान
मैं सोचता हूँ
कैसे, किसे, कब तक समझाऊँ
ये मेरे कामकाजी शब्द
न हिंदू हैं न मुसलमान
न हिंदी न उर्दू
न सिख न ईसाई
न महाजन न दुकानदार।

ये तो मानवीय उष्मा से बने
बादल हैं उड़ते हुए
रिमझिम बरसते हुए
तपती धरती को नहलाते
मिट्टी की पर्तों में
विलीन हो जाते हैं
और इस तरह बार-बार
समर्पित भाव से
रीत जाते हैं।

लेकिन हर बार
दुनिया की ओछी बातों से
मेरे कामकाजी शब्दों के
सपने टूट जाते हैं।

यों उनके सपनों की
औकात भी क्या है?
और सही मायनों में
देखा जाए तो
उन्हें सपने देखने का हक है भी नहीं
कौन हैं वे
कि सपने देखते हैं!
कभी उनके बाप-दादों ने
लगाई है अचकन में गुलाब की कली?
कौन-सा बलिदान किया है
उन्होंने देश के लिए?
बड़े आए सपने देखने वाले
मारो हरामजादों को!
मेरे कामकाजी शब्द
सहम जाते हैं
भीड़ की रेलमपेल में
रगड़ खाते
अश्रुगैस, लाठियों से बचते-बचाते
पानी की तोपची बौछारों में नहाते
ताबड़तोड़ भागते-भागते
भागीरथी या नर्मदा के किनारे पहुँच
विस्थापित हो जाते हैं।

कैसी त्रासदी है?
जल की धारा रोक
बनते हैं बाँध
कि खुशहाली आए
पर मेरे कामकाजी शब्दों की आँखों से
बहती पानी की धार
रोकने के लिए कोई बाँध नहीं बनता है।

उनके ह्रदय में
समाए ताप को
उर्जा में बदलने वाला रियेक्टर
नहीं बनाया है
किसा बहुराष्ट्रीय कंपनी ने।

कैसा है यह विकास का मॉडल
कि सब कुछ आयातित अच्छा है
और उत्तराधिकार में प्राप्त
बौद्धिक संपदा का ज्ञान ओछा है।

मेरे कामकाजी शब्द
बुदबुदाते हैं
कैसे हैं ये पाठ
जो हमें पिछलग्गू बना भरमाते हैं
कैसे हैं ये निष्कर्ष
जो हर रोज़ हमें
और अकेला कर जाते हैं।

बंद कमरे में
मेज़ पर बैठे-बैठे
दुनिया से बतियाते हैं हम
और खाना लिए
इंतज़ार करती माँ के कान
दो शब्द सुनने को
तरस जाते हैं।

'ऑप्टिक फाइवर' के ताने-बाने पर
ब्रह्मांड नाप आने वाले हम
महानगर की सड़कों पर
धर्मांध जुलूसों की
चक्करघिन्नी में
फँस जाते हैं

दुनिया को मुट्ठी में करने की चाहत
रेत के ज़र्रों की तरह
ऊँगलियों से फिसल, झर जाती है
कैसा है यह तिलिस्म
फिर भी मुट्ठी
भरी नज़र आती है।

द्रौपदी को पा लेने की
दुर्योधनी आकांक्षा
बार-बार उभर आती है
महाविनाशक हथियारों की
शकुनि-चाल पर
तेल-कुँओं का हो जाता है हरण
हो जाता है
एक देश का विनाश।
कौरव-सभा में
मूक दर्शकों की कमी
न तब थी
न अब है।

ये मेरे कामकाजी शब्द
बार-बार दोहराते हैं
महाभारत, भारत का ही सत्य नहीं है
विश्वपटल पर
न जाने कितने कुरुक्षेत्र उभर आए हैं
हर ओर बोलबाला है
धृतराष्ट्रों का
कौरवों से पट गए हैं
विश्व के हस्तिनापुर
गांधारी की तरह
छोटे-छोटे स्वार्थों की
काली पट्टी चढ़ाए
विश्व-मत कर चुका है
अंधता का वरण।

बहुत लंबी है
यह अंधी सुरंग
प्रकाश की किरण कहाँ है?
कहाँ हैं कृष्ण और अर्जुन?

हर ओर
सलीब ही सलीब दिखाई देते हैं
दिखाई नहीं देता कोई मसीहा
किस कोहरे में
खो गए हैं
बुद्ध और गांधी?
हर ओर चल रही हैं आँधियाँ
ज्वालामुखी पिघल रहे हैं
बह रहा है आतंक का लावा
घर जल रहे हैं।
मेरे कामकाजी शब्द,
छाँह पाने के लिए भटक रहे हैं
प्यास से जले जा रहे हैं ओठ
पानी-पानी चिल्लाते
हलक सूख गया है
दरअसल उनके हक का पानी
बोतलों में बंद
दुनिया के बाज़ारों में
बिक रहा है।
पानी का भी भूमंडलीकरण हो गया है।

कोई नहीं बताता
आखिर हमें कहाँ जाना है
आँखों ही आँखों में
क्यों मर रहे हैं सपने!

रोज़गार की तलाश में भटकते
मेरे कामकाजी शब्दों को
कोई नहीं समझाता
कि पेट की आग और
सैनसैक्स की उठान में क्या नाता है

जो सबके लिए उगाता है
अन्न और कपास
वही क्यों
भूखा और नंगा मर जाता है।

वोटों की बिसात पर
सभी के दाँव
बराबर लगे हैं
सभी हैं असुरक्षित
और यात्रा लंबी है
आरक्षण ही है एकमात्र सुविधा
इसलिए आपाधापी मची है
देश जाए भाड़-चूल्हे में
सबको अपनी-अपनी पड़ी है
हर ओर धक्का-मुक्की है

मेरे कामकाजी शब्दों की
सिट्टी-पिट्टी गुम है
हर ओऱ से धक्के खा
थके-हारे वापस लौट आते हैं
औऱ मेरी करवट बदलने से पहले ही
तकिए के नीचे रखी किताब
के पन्नों में
सिसक-सिमट सो जाते हैं

और उनकी यह सिसकन
मेरी नींद उड़ा देती है।

२४ अगस्त २००९

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