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अनुभूति में प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण की
रचनाएँ-

नयी कविताओं में-
अपने को मिटाना सीखो
एक दिन

ये मेरे कामकाजी शब्द

कविताओं में-
उभरूँगा फिर
एक धुन की तलाश
गुज़रे कल के बच्चे
घर लौट रहे बच्चे
चलती है हवा
जापान में पतझर
झरती पत्तियों ने
दिन दिन और दिन

ध्वन्यालेख तन्मयता के
निराला को याद करते हुए
मुक्ति
मौसम
लक्ष्य संधान
वसंत से वसंत
सार्थक है भटकाव

सुनो सुनो

  निराला को याद करते हुए

फिर हुआ सूर्यास्त
ज्योति के पत्र पर किंतु
नहीं लिखा गया
उस अपराजेय समर का विवरण
जो मैंने लड़ा
पूरे दिन

दौड़ते-हाँफते
झल्ली में उठाया वजन
खाई डाँट
माँजते बर्तन
ढोता रहा
तीन पहिए पर
रावण का थुलथुला तन

यों मुझे भी आती रही
याद प्रिया, हर क्षण
दूर देश में कहीं
पैबंद लगी धोती में सिमट
तोड़ती होगी पत्थर
भरे नयन

कैसी है विवशता जीवन की
लड़ना है युद्ध
नित नूतन
नहीं पास कोई
हनु-लखन
ज्यों-ज्यों बढ़ता है
समय चक्र आगे-आगे
देह-धनुष की प्रत्यंचा
ढीली पड़ती जाती है

होगा कैसे शक्ति का आराधन
सत्ता की देवी अब चाहे
राजीव नयन नहीं
केवल स्वर्ण मंजूषाओं का अर्पण

कैसे होगी जय!
फैला है जब हर ओर
भ्रष्ट नैशांधकार
दूर कहीं जलती नहीं मशाल

कैसी होगी जय!
नियति पृष्ठ पर लिखी जब
मात्र एक पराजय
होगी कैसे जय।

लो फिर हुआ
एक और सूर्यास्त!

१६ जनवरी २००६

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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