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साथ
सूर्यास्त
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विमान
हर शाम
देखती हूँ सिर उठा कर
उलटा हुआ समुद्र
वहीं के वहीं ठहरे
थमे, सहमे से
तारे और चंद्र।
घर लौटते पंछियों से
उड़ते विमान।
जाने क्यों लगता है
जैसे सभी,
मेरे ही देश तक जाते हैं,
जैसे वहीं तक हो
बस इनकी उड़ान।
मेरी कल्पना में
बस एक ही रास्ता
एक ही मुकाम।
आँख भरी
कसक उठी
वहाँ मेरी माँ
करती होगी
मेरा इंतज़ार।
24 जुलाई 2007 |