बन्द आँखें
आँखें खोले,
दौड़ती रही मैं
सूखी, सख्त, तपती ज़मीन पर।
काँटे चुभते रहे
पाँव छिलते रहे।
आकाश की ओर
दोनों बाहें उठा
कहती रही,
मेघा, पानी दे।
अंधेरे में ढूँढ़ती रही
खुद को,
डर-डर कर छूती रही
हर सुख को।
दोनों बाहें उठा
सूरज से माँगती रही,
मुझे रोशनी दे।
तपती रेत के बवंडर में
झुलसती रही,
पुकारती रही
कोई मुझे हरियाली दे,
छाया दे।
कुछ नहीं मिला
न जल भरा
न सूरज उगा
न ही कोई पेड़ दिखा।
फिर मैंने
आँखें बन्द कर लीं
और नंगे पाँव चलने लगी।
अचानक,
मेरे अन्दर सूरज उग आया।
फूल ही फूल बिछ गए
मेरे पाँवों के नीचे
काँटे, कहीं गुम हो गए।
ठंडी फुहार ने
जगाया मुझे
देखा,
लगातार हो रही थी बारिश
मेरी ही औंधी पड़ी थी गागर।
भीग गई आँखें
शुकराने में।
जान गई,
तुम मुझसे
बहुत-बहुत-बहुत प्यार करते हो।
१७ नवंबर २००८
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