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माँ दर माँ
उनकी जेबों में डालती हूँ
अपने अनुभव के सिक्के
रख लो, काम आएँगे।
ज़बरदस्ती
बाँधती हूँ
मूल्यों की पोटली।
कोने में रख देना
पड़ी रहेगी,
मेरी याद दिलायेगी।
अंध-विश्वासों की
यह धरोहर
चलो रख लेती हूँ,
मैं अपने पास।
पर यह तो रख लो
पुश्तैनी कम्पास।
पुरानी हैं सुईयाँ
फिर भी करती हैं काम,
भटकने पर राह दिखाएँगी।
खींचती हूँ लक्ष्मण-रेखा
बाँधती हूँ सीमा,
आकाश पर भी
पटरियाँ डाल,
संचालित करती हूँ
उनकी उड़ान।
फिर भी आशंका का सायरन
चुप नहीं होता,
गूँजता है लगातार।
विदा करती हूँ उन्हें
संस्कारों का तिलक,
आशीषों का छत्र,
वर्जनाओं का कवच दे।
मोह की ज़ंजीर
काटती हूँ, विवेक से।
लौटते वक्त,
आईने में
अपना अक्स देख
डर गई हूँ मैं
कब से
अपनी माँ
बन गई हूँ मैं ?
१६ अप्रैल
२०१२
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