धूप
आज, बहुत दिनों बाद
धूप
मेरी बिंदास सहेली की तरह
आकर
ड्राइंग-रूम में पसर गई
चमचम पीली साड़ी
अदा से लहराती रही
उसने सोने के गहनों की पोटली खोल दी
आ, देख!
बस अभी इन्हें दफ़्तर भेज दूँ।
इधर से उधर भागते
मैंने ऐसे देखा
जैसे कोई पुरानी सहेली हो
थोड़ी प्रतीक्षा कर लेगी
वो मुस्करा दी,
कोई बात नहीं।
लौट कर ज़रा यह फैलाव सँभाल लूँ
ज़रा यह मैले कपड़े मशीन में डाल दूँ
अभी आई।
फ़ोन बजा
भागते हुए मैंने इशारा किया
बस अभी आई।
जल्दी से इंतज़ाम कर लूँ
शाम के खाने का
फिर आराम से बैठ कर
अपन बतियाएँगे।
ज़रूर, उसने नाराज़गी से कहा
वह सिकुड़ने लगी।
मुझे ध्यान था
तीसरे पहर के बाद वह रुक नहीं पाएगी
इसे भी घर लौटना होगा।
बेटे का फ़ोन आया
उसे कुछ सूचना चाहिए थी
जल्दी से निबटा के लौटी
वो अपना सामान समेट रही थी
ले मैं ही आ गई
बस ज़रा-सा ठहर जा,
मैं खाना डाल कर लाती हूँ
यहीं तेरे साथ बैठ कर खाऊँगी।
वह दीवार से ऊपर सरक रही थी
मैंने खड़े होकर
उसके पैरों पर सिर रख दिया।
अब उसकी चमक मेरे चेहरे पर थी
उसकी नरम गरमी मेरी पलकों पर,
मैंने पल भर ही सही
उसे छू तो लिया,
हैलो तो कह दिया।
ध्यान आया
मेरे चेहरे पर ताज़ा ज़ख़्म है
धूप की यह दोस्ती
उसके लिए अच्छी नहीं।
मैंने मुँह फेर लिया,
और वह चली गई।
एक अपराध की भावना देकर
एक खालीपन, एक उदासी
घर आए मेहमान की
बेक़द्री हो गई,
वह अब पता नहीं
फिर कब आएगी?
24
जनवरी 2006 |