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माँ तीन कविताएँ
१. माँ
आज भी
जब होती हूँ कुछ थकी सी
कुछ निराश
बहुत उदास
हल्का-हल्का ताप
ऐसे में यों आती है
तेरी याद
जैसे ठंडे नीले
बादलों की नाव
उसमें इन्द्रधनुषी
चप्पू चलाकर
मेरी ओर बढ़ता
आलिंगन करता
तेरा प्यार।
२. माँ दर माँ
उनकी जेबों में डालती हूँ
अपने अनुभव के सिक्के
रख लो, काम आएँगे।
ज़बरदस्ती
बाँधती हूँ
मूल्यों की पोटली।
कोने में रख देना
पड़ी रहेगी
मेरी याद दिलाएगी।
अंध-विश्वासों की
यह धरोहर
चलो रख लेती हूँ
मैं अपने पास।
पर यह तो रख लो
पुश्तैनी कम्पास।
पुरानी हैं सुइयाँ
फिर भी करती हैं काम
भटकने पर राह दिखाएँगी।
खींचती हूँ लक्ष्मण-रेखा
बाँधती हूँ सीमा
आकाश पर भी
पटरियाँ डाल
संचालित करती हूँ
उनकी उड़ान।
फिर भी आशंका का सायरन
चुप नहीं होता
गूँजता है लगातार।
विदा करती हूँ उन्हें
संस्कारों का तिलक
आशीषों का छत्र
वर्जनाओं का कवच दे।
मोह की ज़ंजीर
काटती हूँ विवेक से।
लौटते वक्त
आइने में
अपना अक्स देख
डर गई हूँ मैं
कब से
अपनी माँ
बन गई हूँ मैं
३. माँ से संवाद
सुनो माँ
अब मैं तुम्हें याद कम करती हूँ
जीती हूँ ख़ुद ही
तुम्हारी याद बन कर।
फ़ैसले लेती हूँ
इशारे पर
अन्दर की आवाज़ के
तुम्हारी ही तरह।
क्या रखा है
इन छोटी बातों में
सोचती भी हूँ
तुम्हारी ही तरह।
जब मैं कल नहीं होऊँगी
तब कितने मायने रखेगी
यह बात
तोलती हूँ
तुम्हारी ही तरह।
पर समझौते नहीं करती
अपने को मारती भी नहीं
कमज़ोर नहीं हूँ
तुम्हारी तरह।
अपने लिए
अपनी अपेक्षाएँ
ख़ुद गढ़ती हूँ
मर्यादाएँ मेरी
मूल्य मेरे
रास्ते मेरे
इच्छाएँ मेरी
शर्तें मेरी
शक्ति मेरी।
तुम मेरे भीतर
गर्व से सिर ऊँचा किए
मुस्करा रही हो
तुमने भी तो यही चाहा
मैं अपना रास्ता ख़ुद चुनूँ
कभी नहीं चाहा
तुम्हारी कार्बन- कॉपी बनूँ।
१९
अगस्त २०१३ |