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सूर्यास्त

आज सागर-मध्य खड़ी हो देखा,
न सागर की कोई सीमा,
न आकाश की कोई सीमा।
फिर,
क्षितिज की सेज पर,
शरमा रही थी जो,
सूरज की उस सुनहली दुल्हन ने,
अपना चेहरा छिपा लिया
सिन्दूरी आँचल में।
धीमें-धीमें विलीन हो गई
वह सागर की गोदी में।

इतना समर्पण अच्छा नहीं,
क्यों विलय करती हो
अपने को?
मैंने उस सूरज की लालिमा से पूछा।

मुस्कुरा कर उसने कहा,
विलय कहाँ करती हूँ?
सागर को अपने में भरती हूँ।
यह समर्पण भी
एक सुख है।
तुम भी, डूब कर तो देखो
शर्त यह है
तुम्हारे भी प्रीतम में
गरिमा हो उतनी,
मेरे सागर में है जितनी।

१७ नवंबर २००८

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