आभार
आज फिर तुम मेरे सामने आए
मैंने निकट से देखा
तुम्हारा भव्य रूप।
तुम्हारी ऊँचाई को नापती
मेरी ग्रीवा बिल्कुल पीछे मुड़ गई
फिर भी, मैं गगन में घुल-मिल गई
तुम्हारी अपनी इकाई को खोजती रही
तुम्हारे चट्टानी वक्ष पर उभरती
रेखाओं को देख कर सिहरती रही
चारों तरफ़ से घेरता
तुम्हारे आधिपत्य का दायरा
मुझे आश्वासन देता रहा
धूप-छाँव की
इस रंगमंचीय रोशनी में
तुम मुझे
अपने बदलते रंगों से
सम्मोहित करते रहे।
सूरज ने कुछ इस तरह घुमा कर
रोशनी फेंकी तुम पर
कि बर्फ़ से ढँका
तुम्हारा शिखर
चकाचौंध कर गया।
मैं बस टकटकी लगा कर
देखती रह गई।
फिर जैसे,
देखना काफ़ी नहीं था
आँखों का क्या भरोसा?
मन का क्या विश्वास?
मैं छूना चाहती थी तुम्हें
दुस्साहस कर बैठी मैं
और मैंने बढ़ा दिया
तुम्हारी ओर
अपना हाथ।
मेरी क्षुद्रता,
हवा में ही काँप कर रह गया
मेरे हाथ।
कहाँ तुम
भव्य, विशाल, विराट
और कहाँ मैं
तुम्हारे ही अस्तित्व का एक भाग।
मैं अपनी तुच्छता को समेटे
अपने छोटेपन के एहसास से
संकुचित
बैठी थी घुटनों पर सिर टिकाए
लज्जित
कि कैसे मैंने की हिमाकत
सोचने की भी
कि, मैं तुम्हें छू सकती हूँ
निर्णय दे सकती हूँ
तुम्हारी स्थूलता का,
तुम्हारे होने न होने का,
आँकने का प्रमाण?
लघु बुद्धि का मान?
लज्जित, बहुत लज्जित थी मैं।
तभी
एक छोटी-सी
बर्फ़ की एक चिंदी
मेरे माथे पर आकर गिरी
जैसे मुझे मनाता, सहलाना
तुम्हारा शीतल चुंबन।
मैंने चिबुक उठा कर देखा
तुम्हारी प्यार भरी आँखों में
मुसकुराता
तुम्हारी सक्षमता का भाव
हवाओं की बाहों से उठा कर
तुमने मेरे माथे पर
रख दिया था प्यार।
चारों तरफ़ हल्की-हल्की
बर्फ़ के फाहे गिरने लगे
मैं तो तुम तक नहीं पहुँच सकी
पर तुम मुझ तक पहुँचने लगे
आभार,
बहुत-बहुत आभार।
24
जनवरी 2006 |