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शहर में चाँदनी
हाँफ रही है पूँजी

 

शहर में चाँदनी

भागो कि सब भाग रहे हैं
शहर में कंकड़ीले जंगलों में
मुँह छिपाने के लिए

चाँद ईद का हो या पूर्णिमा का
टी.वी. में निकलता है अब
रात मगर क्या हुआ
मेरी परछाई के साथ
चाँदनी चली आई
कमरे में
शौम्य, शीतल, उजास से भरी हुई

लगा मेरा कमरा एक तराजू है
और मै तौल रहा हूँ
चाँदनी को
एक पलड़े में रख कर
कभी खुद से
कभी अपने तम से
लगा रहा हूँ हिसाब
कितना लुट चुका हूँ
शहर में!

१ मई २०१६

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