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बुरका
भूख लत है

रौशनदान
शहर में चाँदनी
हाँफ रही है पूँजी

 

गुंजाइशों का दूसरा नाम

लो वह दिन भी आ गया
जब हमारा खून गर्म तो होता है
लेकिन
उबलता नहीं है

सूख कर कड़कड़ाई हुई शाखों में
रगड़ तो होती है मगर
अब वो चिंगारी नहीं निकलती
जिससे धू-धू कर
जंगल में आग लग जाती थी

आयरन की कमी वाले हम लोगों ने
अपने खून में लोहे की तलाश भी छोड़ दी है
जिससे बनाए जाते थे खंजर

यह
उबाल रहित खून
आग रहित जंगल और
खंजर रहित विद्रोह का नया दौर है

फिर भी मजे की बात तो यह है कि
यहाँ समाजवाद
अजय भवन के मनहूस सन्नाटे में
आगंतुकों की बाट जोहती
कामरेड अजय घोष की मूर्ति नहीं
बल्कि
छाँट कर रखी गयीं
पुस्तकालय की किताबों के चंद मुड़े हुए पन्नों में
बची गुंजाइशों का दूसरा नाम है

१ मई २०१६

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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