अनुभूति में
सुशील कुमार की रचनाएँ-
नयी रचनाओं में-
कामरेड की मौत
चाँद की वसीयत
मन का कारोबार
विकल्प
सलीब
छंदमुक्त में-
अनगढ़ पत्थर
आसमानों को रँगने का हक
एक मौत ही साम्यवादी है
गुंजाइशों का दूसरा नाम
बदन पर सिंकती रोटियाँ
बुरका
भूख लत है
रौशनदान
शहर में चाँदनी
हाँफ रही है पूँजी |
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एक मौत ही साम्यवादी है
वह माटी की सौंधी गंध का मुरीद था
सुनता था कहीं कोई चटकन सुनायी तो नहीं देती
कलियों के फूल बनने की प्रक्रिया में
इन्द्रधनुष की खबर
गाँव भर में देता फिरता सबसे पहले
पैरों के तलवे को छूने वाली
एक-एक ओस की बूँद को वह पहचानता था
बसंत में वह ऐसे झूमता जैसे
गुलमोहर और पलाश
उसी के लिये रंग बिखेरने आये हों
अगर अपनी धुन में जीता
तो वह कवि होता
लेकिन फाकाकशी में
चाँद भी रोटी दिखता है
कब तक सौन्दर्यबोध में जीता
और दवाइयों के लिए
लोगों के सामने हाथ फैलाता
भूख की लड़ाई में
एक के बाद एक
सबने अलविदा कहा
पिता, बड़ा भाई, माँ और चाचा
और वह जान पाया कि
हर काली रात एक
सुर्ख सुबह पर जा कर ख़त्म होती है
जहाँ सब के हिस्से में एक बराबर आती है मौत
इस क्रूर व्यवस्था में
एक मौत ही साम्यवादी है
उसने जो पहली कविता लिखी
वह कविता नहीं, सुलगते कुछ सवाल थे
या कहें चंद सवालात की पूरी कविता
कि आखिर वह कौन है जो
समाजवादी तरीकों से मौत तय करता है
और जिंदगी बाँटते समय पूँजीवादी हो जाता है ?
वह कौन सा फार्मूला है कि
जिन मुश्किल दिनों में बामुश्किल
मेरे घर में कफ़न खरीद कर लाये जाते हैं
उसी दौर में पडोसी के घर
चर्बी घटाने की मशीनें आती है ?
२२ जुलाई २०१३ |