अनुभूति में
सुशील कुमार की रचनाएँ-
नयी रचनाओं में-
कामरेड की मौत
चाँद की वसीयत
मन का कारोबार
विकल्प
सलीब
छंदमुक्त में-
अनगढ़ पत्थर
आसमानों को रँगने का हक
एक मौत ही साम्यवादी है
गुंजाइशों का दूसरा नाम
बदन पर सिंकती रोटियाँ
बुरका
भूख लत है
रौशनदान
शहर में चाँदनी
हाँफ रही है पूँजी |
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आसमानों को रँगने का हक
बारिश होने लगी फिर
उठने लगी
ज़मीन से सौंधी-सौंधी महक
जिसमें चीखने लगा खून
फिर मेरे बाप-दादाओं का
जिस जमीन को हम जोतते चले आये
हरी-भरी बनाते चले आये
सींचते चले आये खून से पीढ़ी-दर-पीढ़ी
जिस जमीन में मिल कर
हमारे खून की तीक्ष्ण गंध सौंधी हो गयी है
उस जमीन के लिए खून लेने का
हक हमें चाहिए
शोषकों के संगीनों को
उनकी ही तरफ मोड़ने का
हक भी हमें चाहिए
मिट्टी में सनी लालिमा से
आसमानों को रँगने का
हक भी हमें चाहिए
२२ जुलाई २०१३ |