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हाँफ रही है पूँजी

 

हाँफ रही है पूँजी

बहुत तेजी से भागती है पूँजी
मानो वक्त से आगे निकल जाना हो इसे
मानो अपनी मुट्ठी में दबोच लेना हो समूचा ब्रह्माण्ड
समूची धरती, खेत, नदियाँ और पहाड़
बच्चों की किलकारियाँ
मजदूरों का पसीना
किसानों का श्रम
मेहनतकशों के हकूक
आजादाना नारे
और वह सब कुछ
जो उसकी रफ़्तार के आड़े आता हो

वह बढ़ाना चाहती है अपनी रफ़्तार प्रतिपल
लेकिन बहुत जल्दी हाँफने लगती है पूँजी

और जब पूँजी हाँफने लगती है
तब खेतों में अनाज की जगह बन्दुकें उगाई जाती हैं
भूख के जवाब में हथियार पेश किये जाते हैं
परमाणु, रासायनिक और जैविक

पूँजी पैदा करती है दुनिया के कोने-कोने में रोज नए
भारत-पकिस्तान
उत्तर-दक्षिण कोरिया
चीन-जापान
इसराइल-फिलिस्तीन

फिर हँसती है दोनों हाथ जंघों पर ठोक कर
सोवियत संघ के अंजाम पर
अफगानिस्तान पर
ईराक पर
मिश्र पर

अपनी हँसी खुद दबाकर
बगलें झाँकती है पूँजी
वेनुजुवेला और क्यूबा के सवाल पर

दम फूल रहा है प्रतिपल
हाँफ रही है पूँजी
और खेतों में अनाज की जगह उग रहीं हैं बन्दुकें

पूँजी आत्मघाती हो रही है दिन-ब-दिन

१ मई २०१६

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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