अनुभूति में
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रंग
होली की आहट
सुनते ही
प्रकृति ने अपना
रंग निहारना
शुरू किया
गेसू खिल उठे,
हर पुष्प पर
यौवन छाने लगा।
इकठ्ठे कर लिए
इंसानों ने भी
कई रंग, सजा
लिए बाज़ार में।
अफ़सोस, मिला नहीं
इंसानियत को
कोई भी रंग,
जिससे बदल दे
वो अपनी व
अपने देश की तक़दीर।
गुलाल, अबीर,
हरा, पीला, सब
रंग सजे हैं
सोचती हूँ
कितने मासूम हैं
ये रंग, हर बरस
आते व हम संग
खेल, चल जाते,
प्रश्न उलझाता मुझे
उन रंगों में,
जो इंसान लगाकर
ताउम्र घूमता
जिसका रंग न
दिखता, न छूटता।
बदरंग करता
चला जाता
मानवी सैलाब को।
साल में एक दिन
इंसानों के चेहरों
पर पुतने हेतु
चले आते हैं
अबीर, गुलाल।
पल भर को भुलाने
की ताकत भी
रखते हैं इंसानी रंगों को ये
काश, हम सहेज लें
इन हँसी, खुशी के रंगों को
व फेंक दें कहीं दूर
ईर्ष्या, द्वेष, जाति-पाति
के पक्के रंग।
24 जनवरी 2006
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