अनुभूति में
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इल्ज़ाम
मैं चल रही हूँ
या वक्त खड़ा है
दोनों ही सवाल
सही हैं
शायद बलवान है वक्त,
जो मेरी ज़िंदगी के
हिंडोले को कभी
हल्का-सा हिलाता
तो कभी झिंझोड़ जाता।
महसूस करती वक्त
के थपेड़ों को मैं
कभी हँसकर तो कभी रो कर
इल्ज़ाम देती कि वक्त
ख़राब है शायद इसलिए
कि अपने सिर इल्ज़ाम
लेना इंसान की
फ़ितरत नहीं।
9 नवंबर 2006
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