अनुभूति में
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आज़ादी
कितनी ही आँखें
बाट जोए बैठी थीं
किसी भाई, बहन, बाप-माँ का,
सुबह पहुँचना था उन्हें
अपने-अपने घर,
किस संगदिल ने
उनकी सुबह को स्याह
काली रात में बदल दिया
शायद हम भूल गए
हमने आज़ादी कैसे पाई
गुलामी भी इतनी क्रूर न थी
आज हम ही अपने दुश्मन हो गए,
भाई-भाई खून का प्यासा
बन गया,
जहाँ कहीं भी हाथ बढ़ते हैं
समझौते के शांति के,
क्यों आख़िर क्यों काट
दिये जाते हैं अपने
स्वार्थों के लिए।
24 अप्रैल 2007
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