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माँ

दहलीज़ लाँघते ही
आज प्यार भरी
आँखों ने नहीं निहारा
किसी ने मेरे सिर से
नज़र का भार, नहीं उतारा
कोई दौड़ा नहीं गया
रसोई में लाने रोटी
नमक मक्खन के साथ
व दूध, मलाई वाला।
कहाँ से, क्यों आवाज़ कौंधी
बबुआ आया है
थक गया होगा
तनी तेल लगा दूँ सिर पर
आज आँखें बरस पड़ी हैं
देख माँ के हाथों के थापे
जो बाहर आँगन में पुती
दीवार के नीचे नज़र आ रहे हैं
चक्की के मुठ्ठे पर
माँ के हाथ की पकड़ की चमक
जो बरामदे के कोने में
धूल चाट रही है
लस्सी का मटका
चरखे का ढाँचा
जो झाँक रहे हैं मुझे
आज पुरानी पिछली
कोठरी से, साथ ही
दिख रही, जीरे की
वो डिबिया, जिसमें छिपे
रहते थे मुड़े-तुड़े नोट
जो मुझे आपात काल में
बापू की नज़र बचाकर देती थी मुझे।
लगा आज इस घर के
सारे दरवाज़े
खुले होकर भी
बंद हो गए हैं
मेरे लिए।

24 जनवरी 2006

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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