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मुसाफ़िर
ममता, फ़र्ज़ और समय
के द्वंद्व में
किस तरह मैंने अपनी
कश्ती खींची।
कई बार ममता के थपेड़ों
को पीछे हटा फ़र्ज़ निभाया,
समय का पहिया
घूमता रहा अपना धुरी पर
कई कष्ट झेले हैं
मेरी अंदर की औरत ने,
मेरी माँ रोई है कई बार,
मेरी औरत तड़पती है
अँधेरी रातों में,
परंतु समय के पतवार
अपने चप्पू चलाते रहे,
कश्ती लिए किनारे तक
आ ही गई, उतर गए मुसाफ़िर,
चल दिए अपनी मंज़िलों की तरफ़,
कह कर कि कश्ती का सफ़र भी
कोई सफ़र था।
9 नवंबर 2006
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