अनुभूति में
अशोक रावत की रचनाएँ—
नई रचनाएँ—
आसमाँ में
उजाले तीरगी में
जी रहे हैं लोग
भले ही रोशनी कम हो
अंजुमन में—
अँधेरे इस क़दर हावी हैं
इसलिए कि
किसी का डर नहीं रहा
डर मुझे भी लगा
जिन्हें अच्छा नहीं लगता
ज़ुबां पर फूल होते है
तूफ़ानों की हिम्मत
थोड़ी मस्ती थोड़ा ईमान
नहीं होती
फूलों का परिवार
बढ़े चलिये
बड़े भाई के घर से
भले ही उम्र भर
मुझको पत्थर अगर
ये तो है कि
विचारों पर सियासी रंग
शिकायत ये कि
संसद में बिल
सभी तय कर रहे हैं
हमारे
हमसफ़र भी
हमारी चेतना पर
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ये तो है कि
ये तो है कि घर
को हम बचा नहीं सके
चक्रवात पर हमें झुका नहीं सके
ये भी है की मंज़िलें कभी नहीं मिलीं
रास्ते मगर हमें थका नहीं सके
हम किसी की ओट में नहीं थे पर हमें
आँधियों के सिलसिले बुझा नहीं सके
देखिए गुलाब की तरफ भी एक बार
फूल क्या जो ख़ार से निभा नहीं सके
रंग रूप तो भुला दिए गये सभी
ख़ुशबुओं को लोग पर भुला नहीं सके
अंधकार के हज़ार संगठन कभी
रौशनी के वंश को मिटा नहीं सके
मिल गये हज़ार झूठ भी तो क्या हुआ
एक सच को आज तक हरा नहीं सके
११ जून २०१२
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