अनुभूति में
अशोक रावत की रचनाएँ—
नई रचनाएँ—
आसमाँ में
उजाले तीरगी में
जी रहे हैं लोग
भले ही रोशनी कम हो
अंजुमन में—
अँधेरे इस क़दर हावी हैं
इसलिए कि
किसी का डर नहीं रहा
डर मुझे भी लगा
जिन्हें अच्छा नहीं लगता
ज़ुबां पर फूल होते है
तूफ़ानों की हिम्मत
थोड़ी मस्ती थोड़ा ईमान
नहीं होती
फूलों का परिवार
बढ़े चलिये
बड़े भाई के घर से
भले ही उम्र भर
मुझको पत्थर अगर
ये तो है कि
विचारों पर सियासी रंग
शिकायत ये कि
संसद में बिल
सभी तय कर रहे हैं
हमारे
हमसफ़र भी
हमारी चेतना पर
|
|
बढ़े चलिये
बढ़े चलिये,
अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता,
निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता
तपस्या त्याग यदि भारत की मिट्टी में नहीं होते,
कोई गाँधी नहीं होता, कोई गौतम नहीं होता
मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती,
कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता
भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फेंकने होंगे,
किसी हथियार से अम्नो-अमाँ क़ायम नहीं होता
ज़माने भर के आँसू उनकी आँखों में रहे तो क्या,
हमारे वास्ते दामन तो उनका नम नहीं होता
परिंदों ने नहीं जाँचीं कभी नस्लें दरख्तों की,
दरख़्त इनकी नज़र में साल या शीशम नहीं होता
२८ जनवरी २०१३
|