अनुभूति में
अशोक रावत की रचनाएँ—
नई रचनाएँ—
आसमाँ में
उजाले तीरगी में
जी रहे हैं लोग
भले ही रोशनी कम हो
अंजुमन में—
अँधेरे इस क़दर हावी हैं
इसलिए कि
किसी का डर नहीं रहा
डर मुझे भी लगा
जिन्हें अच्छा नहीं लगता
ज़ुबां पर फूल होते है
तूफ़ानों की हिम्मत
थोड़ी मस्ती थोड़ा ईमान
नहीं होती
फूलों का परिवार
बढ़े चलिये
बड़े भाई के घर से
भले ही उम्र भर
मुझको पत्थर अगर
ये तो है कि
विचारों पर सियासी रंग
शिकायत ये कि
संसद में बिल
सभी तय कर रहे हैं
हमारे
हमसफ़र भी
हमारी चेतना पर
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हमारे हमसफर भी
हमारे हमसफ़र भी घर से जब बाहर निकलते हैं,
हमेशा बीच में कुछ फ़ासला रख कर निकलते हैं।
छतों पर आज भी उनकी जमा हैं ईंट के अद्धे,
कहीं क़ानून से सदियों पुराने डर निकलते हैं।
समझ लेता हूँ मैं दंगा अलीगढ़ में हुआ होगा,
मेरी बस्ती में मुझसे लोग जब बच कर निकलते हैं।
किसे गुस्सा नहीं आता कहाँ झगड़े नहीं होते,
मगर हर बात पर क्या इस तरह ख़ंजर निकलते हैं।
जिन्हें हीरा समझ कर रख लिया हमने तिज़ोरी में,
कसौटी पर परखते हैं तो सब पत्थर निकलते हैं।
कहीं पर आग लग जाये, कहीं विस्फोट हो जाये,
हमेशा खोट मेरी कौम के भीतर निकलते हैं।
२८ जनवरी २०१३
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