अनुभूति में
अशोक रावत की रचनाएँ—
नई रचनाएँ—
आसमाँ में
उजाले तीरगी में
जी रहे हैं लोग
भले ही रोशनी कम हो
अंजुमन में—
अँधेरे इस क़दर हावी हैं
इसलिए कि
किसी का डर नहीं रहा
डर मुझे भी लगा
जिन्हें अच्छा नहीं लगता
ज़ुबां पर फूल होते है
तूफ़ानों की हिम्मत
थोड़ी मस्ती थोड़ा ईमान
नहीं होती
फूलों का परिवार
बढ़े चलिये
बड़े भाई के घर से
भले ही उम्र भर
मुझको पत्थर अगर
ये तो है कि
विचारों पर सियासी रंग
शिकायत ये कि
संसद में बिल
सभी तय कर रहे हैं
हमारे
हमसफ़र भी
हमारी चेतना पर
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भले ही रोशनी कम हो
भले ही रोशनी कम
हो मगर ताज़ा हवा तो है
हमारे पास ज़िंदा रहने का एक रास्ता तो है
हमारे पास रुतबा है न शौहरत है न वैभव ही
भले ही कुछ न हो जीने का लेकिन हौसला तो है
तुम्हारे पास फ़ुर्सत ही कहाँ रिश्ता निभाने की
वो मेरा कुछ नहीं लगता मगर मुझ से ख़फ़ा तो है
मुझे कुछ भी नहीं कहना है उसकी बेवफ़ाई पर
अदावत ही सही रिश्तों का कोई सिलसिला तो है
उसे तुलसी कहो मीरा कहो रसखान या दुष्यंत
उजालों के समर्थन में कहीं कोई खड़ा तो है
नहीं मालूम क़र्फ़्यू क्यों लगा है शहर में लेकिन
धुआँ इतना बताता है कहीं पर कुछ हुआ तो है
कभी खिड़की कभी चौखट कभी दहलीज़ के पत्थर
हमारी ग़लतियों पर कोई हम को टोकता तो है
३ नवंबर २०१४
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