अनुभूति में
अशोक रावत की रचनाएँ—
नई रचनाएँ—
आसमाँ में
उजाले तीरगी में
जी रहे हैं लोग
भले ही रोशनी कम हो
अंजुमन में—
अँधेरे इस क़दर हावी हैं
इसलिए कि
किसी का डर नहीं रहा
डर मुझे भी लगा
जिन्हें अच्छा नहीं लगता
ज़ुबां पर फूल होते है
तूफ़ानों की हिम्मत
थोड़ी मस्ती थोड़ा ईमान
नहीं होती
फूलों का परिवार
बढ़े चलिये
बड़े भाई के घर से
भले ही उम्र भर
मुझको पत्थर अगर
ये तो है कि
विचारों पर सियासी रंग
शिकायत ये कि
संसद में बिल
सभी तय कर रहे हैं
हमारे
हमसफ़र भी
हमारी चेतना पर
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थोड़ी मस्ती थोड़ा ईमान
थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान
बचा पाया हूँ।
ये क्या कम है मैं अपनी पहचान बचा पाया हूँ।
मैंने सिर्फ़ उसूलों के बारे में सोचा भर था,
कितनी मुश्किल से मैं अपनी जान बचा पाया हूँ।
कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें,
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूँ।
मुझमें शायद थोड़ा-सा आकाश कहीं पर होगा,
मैं जो घर के खिड़की रोशनदान बचा पाया हूँ।
इसकी कीमत क्या समझेंगे ये सब दुनिया वाले,
अपने भीतर मैं जो इक इंसान बचा पाया हूँ।
खुशबू के अहसास सभी रंगों ने छीन लिए हैं,
जैसे-तैसे फूलों की मुस्कान बचा पाया हूँ।
१ अप्रैल २००६
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