| नौ दोहे  भावुक मन औ' सिंधु का, एक सरीखा रूपजिस पर जितनी तरलता, उतनी उस पर धूप
 सज्जन का औ' मेघ का, कहियत एक सुभायखारा पानी खुद पियै, मीठा जल दे जाय
 पानी पर कब पड़ सकी, कोई कहीं खरोंचप्यासी चिड़िया उड़ गईं, मार नुकीली चोंच
 जब से कद तरु के बढ़े, नीची हुई मुंडेरताक-झाँक करने लगे, झरबेरी के पेड़
 नदियों ने जाकर किया, सागर में विश्रामपर आवारा मेघ का, धाम न कोई ग्राम
 सिसक-सिसक गेहूँ कहें, फफक-फफक कर धानखेतों में फसलें नहीं, उगने लगे मकान
 वैसे तो मिलते नहीं, नदिया के दो कूलप्रिय ने ले निज बाँह में, खूब सुधारी भूल
 मधुऋतु का कुछ यों मिला उसको प्यार असीमकड़वे से मीठा हुआ सूखा-रूखा नीम
 रस ले, रंग ले, रूप ले, होते रहे निहालजैसे ही पूरे पके, छोड़ चले फल डाल।
 
 ९ फरवरी २००६
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