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डॉ. सुषम
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हवाई
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जंगल-
१
उस जंगल में शेर था
चीते थे
खूँखार शक्लों वाले राक्षस थे
अक्सर फन फैलाता साँप भी
चला आता।
मैं डर से सहमी
नानी की साड़ी का छोर पकड़
कहती
न न
रात को मत सुनाओ
मुझे
जंगल की कहानी।
लेकिन
इस जंगल में तो शेर नहीं आता
न ही बिच्छूबूटी
या खतरा ज़हरीले साँपों का।
वन पथ पसरे हैं
साफ़ साफ़
कटी हैं बेहया झाड़ियाँ
पेड़ों पर निशान बने रास्ते की
पहचान के
बीहड़पन में खोने का भी डर नहीं।
फिर सेलफोन भी तो है साथ में।
मैं चलती जाती हूँ इन जंगली
रास्तों पर
बेखटके, बेझिझक
जंगल के ख़ौफ़ से एकदम
बेख़बर।
लेकिन यह क्या
अचानक सुनी गाड़ी की आवाज़
सामने देखा
मैं तो सड़क पर थी।
जंगल पीछे था
और उसके पीछे एक और सड़क!
जंगल- २
नानी से ही सुनती थी
जंगल की कहानी
कभी वहाँ मोर नाचते, कभी
गाती चिड़ियाँ
कभी कृष्ण की बंसरी बजती
कभी लव-कुश की पैंजनियाँ।
विकराल ताड़का यहीं निकलती
सोनमृग कुलांचे भरते
भरत शेर से यहीं उलझता
यहीं सुनती हाथी की चिंघाड़ें।
बड़े होकर नानी से फिर
मैंने पूछा
कहाँ चले गए शेर, चीते, साँप
और वह डरावने राक्षस?
नानी पहले चुप-सी हो गई
खोयी-सी फिर बोली...
शहर आ गए न सब के सब।
क्या तुमने नहीं देखा?
५ मई २००८
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