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बसंत के खेल


चेरी के फूल!
कुछ दिन पहले
गर्दन उचकाकर
सिर को उपर उठा कर
बार-बार तुम्हें देखती

तुम्हारा बच्चों की मीठी
गोलियों-सा
या तरबूज़ के गूदे-सा
गुलाबीपन,
सेमल की रुई-सा
या धूपनिखरे बादल-सा उजला
और रेशमी सफ़ेदपन।

तुम्हारे कोमल बोझ से डोलती,
लचकती,
कभी लहलहाती
चेरी के पेड़ों की डालियाँ।
तुम किसी गीत की लहर से
कभी झुकते
फिर उठते,
कभी आसमान से बतियाते
तो कभी धरती के पाँव को छू कर
नमन करते।

तुम
गुच्छा गुच्छा झूलते
सारे शहर को बौराते, मदमाते
दुनिया भर में मनाते उत्सव
वसंत का
और मैं निहारती तुम्हें
मुग्ध, अचंचल!

आज
त्याज्य हो तुम
उन डालियों के
धराशायी हैं रसीले गुच्छे।
शहर की सड़कों पर
ढेर लगा दिया है
तुमने गुलाबी, चिकनी पत्तियों
का।
अभी अभी
सफ़ाईवाले ने बुहार इन्हें
प्लास्टिक के थैलों में भर
बाँध दिया है।

तुम्हारी तरबूज़िया गुलाबी
रंगत
बार-बार झाँक जाती है इन
गठरियों के बाहर
उस पहचानी हवा में साँस लेने
या वसंत की धूप का स्पर्श पाने।

क्या तुमको मालूम है
कल ये गठरियाँ भैंट हो जाने
वाली हैं
कूड़े के ट्रक को।

बसंत के लिए इतने पागल थे
कि अपनी ही बलि दे बैठे।
बसंत तो अभी भी यहीं है
वैसा ही इठलाता
सबसे बेखबर
और तुम?

५ मई २००८

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