घर-१
तुमने जो कुछ भी किया
अहसान था
तुम्हारी ही बड़ाई थी
उदारपन था।
सराहे गए
भले कहलाए भी गए।
मैंने जो कुछ भी किया
मेरा कर्तव्य था
दायित्व था
न करने में कोताही थी,
कामचोरी थी
मेरे व्यक्तित्व की एक कमी
या कमज़ोरी थी।
घर
तुम्हारे लिए
एक आरामदायक घरौंदा था
बाहर से थकेहारे आनेवाले का
आश्रय
और विश्रामस्थल!
घर
मेरे लिए
कामों, झंझटों, फसादों, फिक्रों,
करने
और करने,
करते ही चले जाने का
एक कभी न रुकनेवाला
अंतहीन
सिलसिला।
घर - २
घर ने तुम्हारे लिए फूल चुने
पाँवड़े बिछाए
ठंडे पानी के ग्लास के साथ
प्यासे को राहत थी
थकेमांदे को
चाय का प्याला
और भूख लगने से पहले ही
परोस दिए अनगिनत व्यंजन।
घर ने मुझे दिया
रसोई का धुआँ
बर्तनों की खटपट
धूल से भरे कोने
मैले कपड़ों के ढेर
थकानेवाले कितने ही
अनचाहे फैलाव
जिनको बीनती, समेटती, सुलझाती,
मैं गलाती रही
उम्र का हर
हुलसता, उजलता, महकता
या अँधियारों में सुबकता
टटोलता
दिन और रात!
५ मई २००८
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