अनुभूति में
डॉ. सुषम
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हुजूम
संकलन में-
गुच्छे भर अमलतास-
हवाई
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हुजूम
मैं जहाँ भी जाती हूँ
मेरे आगे होता है एक हुजूम
और एक पीछे
वाहनों का एक लम्बा कारवाँ
आगे भी और पीछे भी
मैं चल देती हूँ
किसी नई दिशा में
एक नई सड़क पर
एक अलग रास्ते पर
पीछे मुड़ कर देखती हूँ
हुजूम फिर से बनना शुरू हो गया है
मैं रेलगाड़ी पर चढ़ जाती हूँ
किसी अजनबी शहर को
हवाई जहाज़ पर चढ़ती हूँ
किसी नए देश की खोज में
जलपोत पर उचक बैठती हूँ
सागर का सूनापन मथने को
पर वहाँ भी
पीछे या आगे
कतारें ही कतारें
मैं आसमान की तरफ़ बढ़ती हूँ
धरती के सूने अनजाने कोरों की ओर मुड़ती हूँ
हेलीकाप्टर राकेट
पनडुब्बी
पाटल पोत
सब तरफ़ फैला है
इंद्रजाल
उपभोक्ता उपभोग्य का
मैं दाएँ बाएँ देखती हूँ
कसमसा कर खामोश हो जाती हूँ
भागने को जगह नहीं
छुपने को जगह नहीं
छटपटाती हूँ
और
आँखें मूँद लेती हूँ
अपने ही अंधेरे में झाँकती
हूँ
अचानक दिखता है
मेरे भीतर से उग रहा है
वह हुजूम
वह शहर, इमारतें,
सभ्यता और
विकास की मीनारें
छीन लिया किसने मुझसे
मुझको?
मेरे निर्माण में
मेरे लिए
कहीं भी
जगह नहीं।
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