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सीमित दायरे
पेड़ के सहारे,
तटस्थ बैठे हुए
पूरी तन्मयता में लीन
एक आदमी,
सुबह से धूप को बटोर रहा था,
कुछ आँखों में सीमित दायरों के
भँवर को समेट रहा था,
ज़िंदगी के सपनों को
लकड़ी का सहारा दे रहा था।
यथार्थ से लड़ते-झगड़ते
दो पल के लिए सन्नाटे से
बात कर रहा था।
सपने कुछ रूखे, कुछ सूखे,
कल फिर आएँगे,
कल शायद तब वो बोझा उठा रहा होगा।
२४ सितंबर २००७
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