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धूप
जाड़े की दुपहर में
सीली दीवारों से सटी है धूप,
सायों से अठखेलियाँ कर रही
बच्चों के हाथ से मैली हो गई है धूप,
विभिन्न आकारों में कैद हुई
छोटी-छोटी उँगलियों से झाँकती है धूप,
कच्ची, गीली माटी में झोपड़ी पर पैबंद लगाती
ज़मीन पर मखमली कंबल बन जाती है धूप,
खिड़की से छन-छन के आती
ठिठुरे हाथों को अलाव का ताप दे जाती है धूप,
आसमान से बिखरती, ज़िंदगी की नौटंकी में
कभी राजा कभी रंक बनी है धूप,
सुख-दुख की परिभाषा में
मौन अभिव्यक्ति बनी है धूप,
सुबह को हौले से आती है
रात सब बटोर कर, चली जाती है ये धूप।
२४ सितंबर २००७
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