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वर्षा महोत्सव |
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वर्षा मंगल संकलन
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कैसा छंद
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कैसा छंद बना देती हैं
बरसातें बौछारों वाली,
निगल-निगल जाती हैं बैरिन
नभ की छवियाँ तारों वाली!
गोल-गोल रचती जाती हैं
बिंदु-बिंदु के वृत्त बना कर,
हरी हरी-सी कर देता है
भूमि, श्याम को घना-घना कर।
मैं उसको पृथिवी से देखूँ
वह मुझको देखे अंबर से,
खंभे बना-बना डाले हैं
खड़े हुए हैं आठ पहर से।
सूरज अनदेखा लगता है
छवियाँ नव नभ में लग आतीं,
कितना स्वाद ढकेल रही हैं
ये बरसातें आतीं जातीं?
इनमें श्याम सलोना ढूँढ़ो
छुपा लिया है अपने उर में,
गरज, घुमड़, बरसन, बिजली-सी
फल उठी सारे अंबर में!
-माखनलाल चतुर्वेदी
13 सितंबर 2001
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बचपन का सावन
अम्मा के आँगन में
टिप-टिप गिरती बूँदें
गाती रही मेघ मल्हार
मैं बैठी गिनती रही
गिरते जामुन बार-बार
बादलों से लेकर आई
भर कर झोली में
फूटती किरणें और बौछारें
आमों की बगिया को
फिर सींचा बौछारों से
किरणों का बिछौना बुन
सजाया भीगे पत्तों से
मोती बनने की आस में
पी थी मैंने सारी
सावन की बूँदें
सीप समझ मुझमें शायद
स्वाति नक्षत्र की बूँद
समा जाए
सावन के इस दुलार में
बचपन के अनभिज्ञ संसार में
भीगा मेरा तन-मन
अनुभूति की बौछार में
आज भी मेरे आँगन में
ये सीले पल दबे पाँव
पाँव तलक आ जाते हैं
पानी में पडते ही
छींटें उड़ा जाते हैं
कब छूटा है माँ का अँगना
कब छूटी है बौछारें
हर मोड़ पर मिल जाती है
सावन की गीली बूँदों की तरह
मेरी आँखों में
एक तस्वीर की तरह
और हवा में बहकी
तितली की तरह
-रजनी भार्गव
22 अगस्त 2005
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