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अनसुनी आवाज़
कोशिश बहुत की तुम्हें बुलाने की
तुम,
धूप की गठरी सर पर रख कर,
पाँव को एड़ी से खींच कर,
लंबे डग भरते छाँव को ढूँढ़ने निकल गए थे,
धूप छाँव के इस सफ़र में आस्था डोल गई थी,
मेरी अनसुनी आवाज़ सुन ली थी,
तपती धरा ने छाँव घोल कर पी ली थी,
विराट नहीं था अब ये संसार,
मेरी आवाज़ के आस-पास ही
मिल गया था नया शहर।
२४ सितंबर २००७
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