गर्मी की एक दोपहर
कैसे हैं ये दिन, खोखले बाँस से बजते हैं
गुम हवा में टूटी आस से चुभते हैं
गलियों में हवा साँय-साँय चलती है
कैसी भटकन है, मरीचिका तो मन में बसती है
कुतरते दिन, लम्हा-लम्हा गिनते हैं
तुम्हारे साए के साथ अब भी चलते हैं
तपती ज़मीन, पाँव नहीं पड़ते हैं
फफोले पड़ गए, मेघ नहीं बरसते हैं
२४ सितंबर २००७
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