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विस्मृति
लंबे छरहरे पिता
बुढ़ापे के भार से झुक गए थे।
टेढ़ी हो गयी थी
हमेशा तनी रहने वाली उनकी रीढ़
लेकिन बोली में कभी नहीं आया था
लरजपन
मृत्यु को अँगूठा दिखाकर
कई बार हँसते हुए वापस लौटे थे पिता
जैसे मृत्यु का घर उनका ससुराल हो
सफेद धोती, कलफदार कुर्ता, मुँह में पान
और बड़ी सी मुस्कान के साथ
याद आ जाते हैं पिता बरबस ही
माँ की सीधई और पिता की संतई की चर्चा
अब भी करते हैं
उन्हें जानने वाले
सोचता हूँ
किस तरह याद किया जाऊँगा मैं
यहाँ से जाने के बाद
स्मृतियों की खुरची हुई सतह पर
कैसा बनेगा मेरा चेहरा
या कि मिट्टी के टूटे हुए घड़े के साथ ही
बहा दिया जाऊँगा अश्वत्थ की जड़ों में
कर दिया जाऊँगा विस्मृत
दिवाली के बुझे दीयों की तरह
घहराते जीवन नद का शोर
बढ़ जाता है
गहराती रात्रि की विषम बेला में
स्वर्ग का विचार
बहुत ही बोरियत भरा ख्याल है
मैं जन्नत के बजाए
रहना चाहता हूँ
अपने बच्चों की स्मृतियों में
चॉकलेट के मीठे स्वाद की तरह।
पर मेरे चाहने भर से क्या होता है
१ जुलाई २०२३ |