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मुक्ति
आकाश के दुख बाँटती है धरती
धरती अपने दुख जमा करती है
पहाड़ों के पास
पहाड़ों की राजदार होती हैं नदियाँ
नदियाँ अपने दुख सुनाती है समंदर को
समंदर के दुख साझा करते हैं मेघ
पहाड़ मेघों के घर हैं
जहाँ वे उड़ेल देते हैं अपने सारे दुख।
पूरा होता है दुख का जीवन चक्र
आकाश, धरती, पहाड़, नदियाँ, समंदर, मेघ
मुक्त होते हैं अपने अपने हिस्से के दुख से
मनुष्य बाँधकर रखता है
अपने दुःख इच्छाओं की गठरी में
जिसमें लगाता रहता है नित नई गाँठे
मन के अंतर्विरोधों की अंधेरी गुफा में
उसे छुपाकर
देवताओं से माँगता है
दुःखों से मुक्ति के उपाय
उधर गठरी में जमा होते रहते हैं
दुःख
एक के बाद एक नए
मनुष्य नहीं बाँटते अपने दुःख
वे अपनी इच्छाओं से छूटना नहीं चाहते हैं
दुःखों से मुक्त होना चाहते हैं
पर मुक्त होना नहीं
केवल जीवन के दुःख नहीं होते
दुःख का भी जीवन होता है
दुःख पूरा करता है अपना जीवन चक्र
जीवन के चाक पर दुःख नित गढ़ता है
मुक्ति के सतत उपादान
जरूरी हैं मुक्ति की कामना
दुःखों से मुक्ति के बदले
१ जुलाई २०२३ |