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  औरत और नदी

औरत जब करती है
अपने अस्तित्व की तलाश और
बनाना चाहती है
अपनी स्वतंत्र राह
पर्वत से बाहर
उतरकर
समतल मैदानों में
उसकी यात्रा शुरू होती है
पत्थरों के बीच से
दुराग्रही पत्थरों को काटकर
वह बनाती है घाटियाँ
आगे बढ़ने के लिए
पर्वत उसे रखना चाहता है कैद
अपनी बलिष्ठ भुजाओं में
पहना कर अपने अभिमान की बेड़ियाँ
खड़े करता है
कदम दर कदम अवरोध
उफनती, फुफकारती, लहराती
अवरोधों को जब मिटाती है औरत
कहलाती है उच्छृन्खल
औरत जब तोड़ती है तटबंध
करती है विस्तार
अपने पाटों का
अपने आस पास के परिवेश को
बना देती है उर्वरा
चारो और खिल उठता है नया जीवन
वह बन जाती है पूजनीया
कहलाती है गंगा।

१३ अप्रैल २०१५

 

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