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स्मृति
कमरे के छोटे दरीचे से
उतरती शाम की पीली धूप
हो गयी मेरे वजूद के आर पार
मेरे जज्बातों को सहलाती हुई
कमरे के बाहर हिली कुछ परछाई सी
बिम्बित हुआ कुछ स्मृति के दर्पण में
कुछ स्मृतियाँ रहती हैं
मन के हिंडोले में अविछिन्न, अविक्षत
दीवार पे टंगी...शीशे में मढ़ी तस्वीर
मकड़ी ने डाल दिए हैं जाले
पीली धूप दमक रही है
तुम्हारी मुस्कान अनवरत है
खुले आँगन से झाँकता अम्बर
तुम्हारी तलाश में
खँगालता है, हरेक कोना
अपनी विफलता पर आहत है
पुराने घर में ढलती
उदास सी शाम
तालाब के शांत जल में
किसी ने फेंका है पत्थर।
१३ अप्रैल २०१५ |