अनुभूति में
दिविक रमेश की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
आवाज आग भी तो हो सकती है
देखिये मुझे कोई मुगालता नहीं है
पत्नी तो नहीं हैं न हम आपकी
मैं कोई फरिश्ता तो नहीं था
बालगीतों में-
उत्तर उत्तर प्रश्न प्रश्न है
किसको भैया कब है भाया
छोटी छोटी बातों पर
दादा की मूँछों से
हवा हिलाती
अंजुमन में-
रात में भी
आए भी तो
हाक़िम हैं
:छंदमुक्त में-
उनका दर्द मेरी जुबान
उम्मीद
एक बची हुई खुशी
चेतावनी
बहुत कुछ है अभी
रहस्य अपना भी खुलता है
लाठी
वह
किस्सा ही क्या जो चलता न रहे।
सबक
जीवन
क्षणिकाओं में-
हस्तक्षेप
संकलन में-
जग का मेला-
चीं चीं चूं चूं |
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पत्नी तो नहीं हैं न हम आपकी
नहीं लिखा गया तो
एक ओर रख दिया कागज
बंद कर दिया ढक्कन पेन का
और बैठ गया लगभग चुप
माथा पकड़ कर।
"रूठ गए क्या",
आवाज आई अदृश्य
हिलते हुए
एक ओर रखे कागज से,
"हमें भी तो मिलनी चाहिए न कभी छुट्टी।
पत्नी तो नहीं हैं न हम आपकी!"
बहुत देर तक सोचता रहा मैं
सोचता रहा-
पत्नी से क्यों की तुलना
कविता ने?
करता रहा देर तक हट हट
गर्दन निकाल रहे
अपराध बोध को।
खोजता रह गया कितने ही शब्द
कुतर्कों के पक्ष में।
बचाता रहा विचारों को
स्त्री विमर्श से।
पर कहाँ था इतना आसान निकलना
कविता की मार से!
रह गया बस दाँत निपोर कर--
कौन समझ पाया है तुम्हें आज तक ठीक से
कविता?
"पर
समझना तो होगा ही न तुम्हें कवि।"
आवाज फिर आई थी
और मैं देख रहा था
एक ओर पड़ा कागज
फिर हिल रहा था।
२६ नवंबर २०१२ |