अनुभूति में
दिविक रमेश की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
आवाज आग भी तो हो सकती है
देखिये मुझे कोई मुगालता नहीं है
पत्नी तो नहीं हैं न हम आपकी
मैं कोई फरिश्ता तो नहीं था
बालगीतों में-
उत्तर उत्तर प्रश्न प्रश्न है
किसको भैया कब है भाया
छोटी छोटी बातों पर
दादा की मूँछों से
हवा हिलाती
अंजुमन में-
रात में भी
आए भी तो
हाक़िम हैं
:छंदमुक्त में-
उनका दर्द मेरी जुबान
उम्मीद
एक बची हुई खुशी
चेतावनी
बहुत कुछ है अभी
रहस्य अपना भी खुलता है
लाठी
वह
किस्सा ही क्या जो चलता न रहे।
सबक
जीवन
क्षणिकाओं में-
हस्तक्षेप
संकलन में-
जग का मेला-
चीं चीं चूं चूं |
|
देखिए मुझे
कोई मुगालता नहीं है
सड़कें साऊथ ऐक्स्टेंनशन की
हों या नोएडा की
घूम ही नहीं बैठ भी सकते हैं जानवर, मसलन
गाय, बछड़े, साँड इत्यादि
मौज से
खड़ी गाड़ियों के बीच
खाली स्थान भरो की तर्ज पर।
आज़ादी का एक अदृश्य परचम
देखा जा स्कता है फहराता हरदम, उनपर।
पर कितने आज़ाद हैं हम, कितने नहीं
यह सोचने की आज़ादी, सच कहना रामहेर
क्या है भी हम जैसों के पास!
किस खबर पर चौंके
और किस पर नाचें
इतना तक तो रह नहीं गया वश में, हम जैसों के!
वह देखो
हाँ हाँ देखो
देख सको तो देखो
विवश है चाँद निकलने पर दिन में
और अँधेरा हावी है सूरज पर, रात का।
फिर भी
कैसे हाथ में हाथ लिए चल रहे हैं दोनों
जैसे सामान्य हो सब
सदन के बाहर कैन्टीन के अट्टास सा।
क्या हो सकती है हम जैसों की मजाल, मोहनदास!
कि बोल सकें एक शब्द भी खिलाफ, किसी ओर के भी!
आओ तुम्हीं आओ
आओ ज़रा पास आओ भाई हरिदास!
पूछ लूँ तुम्हारे ही कंधे पर रख हाथ
बोलने को तो क्या क्या नहीं बोल लेते हो
बकवास तक कर लेते हो
पर खोल पाए हो कभी अपनी जबान!
देखिए
मुझे कोई मुगालता नहीं है अपनी कविताई का अग्रज कबीर!
और आप भी सुन लें मान्यवर रैदास!
मैं करता हूँ कन्फेस
कि सदा की तरह
रोना ही रो रहा हूँ अपना
और अपने जैसों का।
चाह रहा हूँ कि भड़कूँ
और भड़का दूँ अपने जैसों को
पर नहीं बटोर पा रहा हूँ हिम्मत सदा की तरह।
बस देख रहा हूँ हर ओर सतर्क।
दूर दूर तक बस पड़े हैं सब घुटनों पर
बीमार बैलों से मजबूर
गोड्डी डाले जमीन पर।
सच बताना चचा लखमीचंद
हम भी नहीं हो गए हैं क्या शातिर
अपने शातिर नेताओं से--
कि कहें
पर ऐसे
कि जैसे नहीं कहा हो कुछ भी।
कि गिरफ्त में न आ सकें किसी की भी।
चलो
ठीक है न प्रियवर विदर्भिया
कम से कम
इतरा तो सकते ही हैं न
अपनी इस आजादी पर।
२६ नवंबर २०१२ |