अनुभूति में
दिविक रमेश की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
आवाज आग भी तो हो सकती है
देखिये मुझे कोई मुगालता नहीं है
पत्नी तो नहीं हैं न हम आपकी
मैं कोई फरिश्ता तो नहीं था
बालगीतों में-
उत्तर उत्तर प्रश्न प्रश्न है
किसको भैया कब है भाया
छोटी छोटी बातों पर
दादा की मूँछों से
हवा हिलाती
अंजुमन में-
रात में भी
आए भी तो
हाक़िम हैं
:छंदमुक्त में-
उनका दर्द मेरी जुबान
उम्मीद
एक बची हुई खुशी
चेतावनी
बहुत कुछ है अभी
रहस्य अपना भी खुलता है
लाठी
वह
किस्सा ही क्या जो चलता न रहे।
सबक
जीवन
क्षणिकाओं में-
हस्तक्षेप
संकलन में-
जग का मेला-
चीं चीं चूं चूं |
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मैं कोई फ़रिश्ता तो नहीं था
पत्र भी
एक समय के बाद
शव से नज़र आने लगें तो क्या करें?
क्या करें
जब पत्र भी
शव की सड़ांध से
फेंकने लगें बदबू?
क्या करें
जब उघाड़ने लगें पत्र भी
कुछ सड़ चुकों की
सड़ी मानसिकताएँ?
क्या करें
जब दम तोड़ दें विवश
भले ही खूबसूरत
असुरक्षित प्रतीक्षाएँ, पत्रों की
और वह भी
सूखती, पपड़ाती उत्सुकताओं की ज़मीन पर
खाली खाली?
मसलन
अनुत्तरित पत्र जब
(भले ही वे लिखे हों संपादकों, आलोचकों को)
जमा बैठें अगर अपनी सतहों पर
कुछ सड़े हुए अहंकार
कुछ सड़ी हुई उपेक्षाओं की मार,
कुछ दुराग्रह, कुछ प्रचलित भ्रष्टाचार
तो क्या करें?
क्या करता
कौन सहता है एक समय के बाद
शवों को घरों में?
चढ़ाना तो पड़ता है
माँ-पिता को भी चिता पर!
मैं कौई फ़रिश्ता तो नहीं था न ?
२६ नवंबर २०१२ |