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आग पानी
आग-पानी का, अपना तो रिश्ता रहा
वो सुलगते रहे, मैं बरसता रहा
उसके लिखने के आलम ने मारा मुझे
ख़त पे ख़त रोज़ उसको मैं लिखता रहा
आज के उसके वादे में दम देखकर
राह उसकी मैं घंटों ही तकता रहा
ले गया वक़्त, मुझ से चुराकर मुझे
होके मज़बूर मैं, हाथ मलता रहा
सुख पराया था, वो साथ चलता भी क्यों
दुख हमारा था, जो साथ चलता रहा
लोग ‘अनजान’ बन कर रहे देखते
इक तमाशा बना, शहर जलता रहा
१ जुलाई २०१७
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