सड़क दर सड़क
सड़क दर सड़क
मंज़िलों की तरफ़ बढ़ते हुए
हम आवारा हो गए थे
सही डग भरते हुए।
डूब कर उतराए
खुद को रोक भी पाए
मगर सुनसान रस्ते हो गए थे
तभी सब चलते हुए
हाथ थामे कौन-सा
थे हाथ सब मलते हुए
जंगलों में साँप थे
थे बीहड़ों में रास्ते
अस्तीनें तंग थीं
जेबों में थे कुछ वास्ते
वास्ते आवाराओं के
काम क्या आते भला?
दूर तक दिखता नहीं था
पार जाता काफ़िला
दिल में थी छोटी-सी आशा
सिर पे एक रुमाल था
दूर पानी का कुआँ था
पैर में एक घाव था
दर्द के दर्शन से हल्की
मसख़री करते हुए
सबको छोड़ा और धीरे से
किनारे हो लिए।
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