आज फिर
हरसिंगार झरते हैं
माँ के आशीष रूप धरते हैं
पुलक पुलक
उठता है तन
शाश्वत यह कैसा बंधन!
नमन में झुकता है मन-
नमन में मन!
थिरकते हैं
साँझ की गहराइयों में
तुम्हारी पायलों के स्वर
नज़र आता है चेहरा
सुकोमल अप्सरा-सा
उठा कर बाँह
उँगलियों से दिखाती राह
सितारों से भरा आँगन
नमन में मन!
लहरता है
सुहानी-सी उषा में
तुम्हारा रेशमी आँचल
हवा के संग
बुन रहा वात्सल्य का कंबल
सुबह की घाटियों में
प्यार का संबल
सुरीली बीन सा मौसम
नमन में मन!
बसी हो माँ!
समय के हर सफर में
सुबह-सी शाम-सी
दिन में - बिखरती रौशनी-सी
दिशाओं में-
मधुर मकरंद-सी
दूर हो फिर भी
महक उठता है जीवन
नमन में मन!
-पूर्णिमा वर्मन
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