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                    अनुभूति में निर्मल गुप्त की 
                    रचनाएँ- 
                     नई कविताओं में- 
					मेरी कविता में 
					मेरा नाम 
                    मैं जरा जल्दी में हूँ  
					रामखिलावन जीना सीख रहा है 
					सुबह ऐसे आती है 
                  छंदमुक्त में- 
                    इस नए घर में 
                    एक दैनिक यात्री की दिनचर्या 
                  एहतियात 
                    गतिमान ज़िंदगी  
                     घर लौटने पर 
                    डरे हुए लोग 
                    तुम्हारे बिना अयोध्या 
					नहाती हुई लड़की 
					नाम की नदी 
					पहला सबक 
					फूल का खेल 
					बच्चे के बड़ा होने तक 
                    बयान  
					बाघखोर आदमी 
					मेरे ख्वाब 
					रोटी का सपना 
                    लड़कियाँ उदास हैं 
                    हैरतंगेज़ 
                  रेलवे प्लेटफ़ार्म  | 
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                     मैं जरा 
					जल्दी में हूँ  
					 
					अब मैं जरा जल्दी में हूँ  
					मेरे पास इतनी भी फुरसत नहीं  
					बैठ कर किसी के पास  
					अपनी ख़ामोशी कह सकूँ  
					उसकी तन्हाई सुन सकूँ  
					मैं चींटियों की तरह  
					सीधी लकीर में चलता हुआ  
					अब उस मुकाम पर हूँ  
					जहाँ आसमान से टपकती  
					पानी की बूँदों से 
					अपने-अपने कागजी लिबास बचाने की  
					मारक होड़ मची है।  
					 
					अब मैं जरा जल्दी में हूँ  
					मेरे पास न जीतने को कुछ है  
					न गँवाने लायक कुछ  
					फिर भी निरंतर भागते जाना है  
					क्या पता कहीं बँटता हुआ मिल जाये  
					कोई ऐसा अनचीन्हा सुख  
					जिसके लिए कोई प्रतिस्पर्धा  
					कोई कतार न हो।  
					 
					अब मैं जरा जल्दी में हूँ  
					मेरे पास अभी एकाध सपना बचा है  
					कुछेक साँसें हैं  
					उम्मीद के चंद कतरे हैं  
					यादों का कबाडखाना,  
					गुमशुदा कल  
					और लावारिस यकीन हैं  
					क्या पता कहीं मिल जाये  
					उम्मीदों का जादुई चिराग  
					बिन तेल बिन बाती जलता हुआ .. 
					 
					अब मैं जरा जल्दी में हूँ  
					मेरे पास आस है  
					जो कभी नहीं हुआ अब हो जाये  
					ढेर –सा प्यार  
					थोड़ा सा दुलार कहीं से मिल जाये  
					वो न मिले तो न सही  
					ऐसी कटार ही मिल जाये  
					जिससे कट जाएँ एक ही वार में  
					मेरे तमाम निरर्थक खौफ  
					सारी कायरता  
					बहानेबाजी के कवच  
					 
					अब मैं जरा जल्दी में हूँ  
					धैर्य की सारी सीमा रेखाओं को  
					लाँघ कर चला आया हूँ 
					किसी नाटक का मूक दर्शक  
					मुझे नहीं बनना है  
					अपना नियामक खुद बनना है  
					बहुत जी लिया इतिहास के ग्रंथों के  
					मानचित्रों के जरिये  
					अब और नहीं रेंगना  
					अतीत की कंदराओं में  
					आधारहीन अनुमानों के सहारे।  
					 
					अब मैं जरा जल्दी में हूँ।  
					ऊबने, ऊँघने, अघाने सिर्फ सोचने विचारने का  
					समय कब का रीत चुका है।  
					बिना कुछ किये मरने से बेहतर है  
					जल्दबाजी में कुछ करते हुए मर जाना।  
					 
					९ दिसंबर २०१३  |