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अनुभूति में निर्मल गुप्त की रचनाएँ-

नई कविताओं में-
तुम्हारे बिना अयोध्या
नाम की नदी
फूल का खेल
बाघखोर आदमी
रोटी का सपना

छंदमुक्त में-
इस नए घर में
एक दैनिक यात्री की दिनचर्या
एहतियात
गतिमान ज़िंदगी
घर लौटने पर
डरे हुए लोग
नहाती हुई लड़की
पहला सबक
बच्चे के बड़ा होने तक
बयान
मेरे ख्वाब
लड़कियाँ उदास हैं
हैरतंगेज़
रेलवे प्लेटफ़ार्म

 

बाघखोर आदमी

जंगल सिमटते जा रहे हैं
घटती जा रही है
विडालवंशिओं की जनसंख्या
भौतिकता की निरापद मचानों पर
आसीन लोग
कर रहे हैं स्यापा
छाती पीट-पीट कर
हाय बाघ, हाय बाघ।

हे बाघ ! तुम्हारे यूँ मार दिए जाने पर
दुखी तो हम भी हैं
लेकिन उन वानवासिओं का क्या
जिनका कभी भूख तो कभी कुपोषण
कभी प्राकर्तिक आपदा
कभी-कभी किसी आदमखोर बाघ
उनसे बचे तो
बाघखोर आदमी के हाथ
बेमौत मारा जाना तो तय ही है।

चिकने चुपड़े चेहरे वाले
जंगल विरोधी लोग
गोलबंद हैं सजधज के
बहा रहे हैं
बाघों के लिए नौ-नौ आँसू।

बस बचा रहे मासूमियत का
कोरपोरेटीय मुखोटा
बाघ बचें या मरें वनवासी
इससे क्या?

११ अप्रैल २०११

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