सब कुछ वैसे ही
सब कुछ वैसे ही जारी है
भ्रष्टाचार सदाचारी है
कल उनके माफ़िक मौसम था
और आज इनकी बारी है
नकली गहने खूब गढ़े हैं
जगह जगह फनकार बढ़े हैं
पीतल पर सोने का पानी
आसमान पर भाव चढ़े हैं
लफ्जों में लफ्फाजी लफ़ड़े
मानी में पेचीदा पचड़े
शायद अपनी रीति नीति के
हमने गलत बुने हैं कपड़े
यूँ तो हम सब खरीदार हैं
भाव ताव में होशियार हैं
लेकिन माफ़िक दाम मिले तो
बिकने को भी बेकरार हैं
बदचलनी की ऋतु बदलेगी
परिवर्तन की हवा चलेगी
भीतर भीतर सुलग रही है
धुआँ उठा है आग जलेगी
१३ सितंबर २०१० |