अनुभूति में शिवबहादुर सिंह
भदौरिया की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
एक सवाल कि जीवन क्या है
कहा कि सबकी पीड़ा गाओ
कुहासे की शिलाएँ
जिंदगी कठिन तेवर तेरे
दुर्दिन महराज
पत्थर समय
पाँवों में वृन्दावन बाँधे
बैठ लें कुछ देर आओ
यही सिलसिला है
वटवृक्ष पारदर्शी
गीतों में-
इंद्रधनुष यादों ने ताने
जीकर देख लिया
टेढ़ी चाल जमाने की
नदी का बहना मुझमें हो
पुरवा जो डोल गई
मुक्तक में-
सब कुछ वैसे ही |
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पुरवा जो डोल गई
घटा घटा आँगन में जूड़े से खोल गई
पुरवा जो डोल गई, पुरवा जो डोल गई
बूँदों का लहरा दीवारों को चूम गया
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया
श्याम रंग परियों से अंतर है घिरा हुआ
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ
मइया के मंदिर में
अम्मा की मानी हुई
डुग डुग डुग डुग डुग बधइया फिर बोल गई
पुरवा जो डोल गई, पुरवा जो डोल गई
बरगा की जड़ें पकड़ चरवाहे झूल रहे
बिरहा की तालों में विरहा सब भूल रहे
अगली सहालग तक ब्याहों का बात टली
बात बहुत छोटी पर बहुतों को बहुत खली
नीम तले चौरा पर
मीर की बार बार
गुड़िया के ब्याह वाली चर्चा रस घोल गई
पुरवा जो डोल गई, पुरवा जो डोल गई
खनक चुड़ियों की सुनी मेंहदी के पातों ने
कलियों पर रंग फेरा मालिन की बातों ने
धानों के खेतों में गीतों का पहरा है
चिड़ियों की आँखों में ममता का सेहरा है
नदिया से उमक उमक
मचली वह छमक छमक
पानी की चूनर को दुनिया से मोल गई
पुरवा जो डोल गई, पुरवा जो डोल गई
झूले के झूमक हैं शाखों के कानों में
शबनम की फिसलन केले की रानों में
ज्वार और अरहर की हरी हरी सारी है
सनई के फूलों की गोटा किनारी है
गाँवों की रौनक है
मेहनत की बाँहों में
धोबन भी पाटे पर हइया हू बोल गई
पुरवा जो डोल गई, पुरवा जो डोल गई
२५ अप्रैल
२०११ |